अपने कॉलेज की मधुर यादों का झरोंखा

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जीवन एक कैनवास मानकर ,
उकेरती  हर याद  इसपर।
थी बीते दिनों को फ़िर ज़ीने की चाहत,
सुन रही थी रोज़ मैं उनकी आहट।
बढ़ चले कदम खुदबखुद,
बस रुके कॉलेज के गेट पर आकर.
वही आम ,गुलमोहर आदि  के वृक्ष,
झूम रहे हवाओं से हिल मिल कर।
खड़ी हो गयी उनके नीचे ,
गिरेकुछ पुष्प यूँ  खिलकर।
छू लेने को आतुर मुझे ,
बिछ रहे हों जमीं पर।
झाँक रहा था दर दरवाजों से ,
यादों का झरोंखा।
मन दौड़ गया बीते वक्त मे ,
मैने भी नहीं उसको रोका।

वही क्लास वही लैब ,
वही थे गलियारे।
वही बैंच जिस पर थे ,
हम खूब बतियाते।
खो गई कहीं खुद ही
घने कोहरे की धुंध मे।
ढूंढने लगी खुद को ही
छात्राओँ के झुँड मे।
ढूंढा उनमे अपनी सखियों को भी।
याद में भिगो दिया अँखियों को  भी।
भर आया दिल याद कर पापा को
खोजती रही भीगी आँखों से उनको।
मन जो तड़पा था सालों से।
लग गया   गले उन,
भूली बिसरी यादों से।
हर जगह देखी छू छू कर।
कियामहसूस उन्हे अपनी रूह तक।
मिली पुराने दोस्तों से भी,
कुछ बड़ों कुछ छोटों से भी।
लौट आयी फ़िर अपने घर,
नई ऊर्जा अपने मे भर।

डॉ अर्चना गुप्ता  

 

 

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Dr. Archana Gupta

Dr. Archana Gupta loves to give words to her thoughts in the form of poems, stories and articles. She is passionate about learning new things and admire the beauty of the world.

8 thoughts on “अपने कॉलेज की मधुर यादों का झरोंखा”

      1. dear archana,
        लिखने वालों को तो बस सराहना की चाहत होती है
        ,एक पंक्ति आँखों से खुशियों के दो बूँद छलका देती हैं

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