मुक्तक (68 )

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(202 )

वो चित्र बहुत अब भाता है

जो माँ की याद दिलाता है

प्यारे प्यारे बचपन के दिन

दिखला आँखें भर लाता है

(203 )

मीत होकर भी नहीं स्वीकार करते

क्यों हमारे प्यार से इन्कार करते

आज तक भी ये समझ पाये नहीं हम

बस दिखावे के लिये मनुहार करते

(204 )

वक्त कर्मों का सिला देता है

आस के गुल को खिला देता है

ये कभी रुकता नहीं चलता बस

वक्त बिछड़ों को मिला देता है

डॉ अर्चना गुप्ता

 

मुक्तक (67 )

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(199 )

घर को केवल घर कब जाना

घर को मैंने मंदिर माना

बच्चों की खुशिओं में जन्नत

माँ बनकर मैंने पहचाना

(200 )

बनाते सैकड़ों झूठे बहाने

गए थे गोपियों को तुम सताने

नहीं अब बोलती कान्हा सुनो मैं

करो जितने जतन पर मन न माने

(201 )

क्यों पुराने सवाल करते हो

बेबजह ही बवाल करते हो

जीत किस की हुई बताओ मत

तोड़कर दिल कमाल करते हो

डॉ अर्चना गुप्ता

“अभिव्यक्ति “

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मन के अंधेरों में
छिपी रहती किवाड़ों के पीछे
कुछ ठिठकी सी भावनायें

खिड़की के शीशे पर सर पटकती
पानी की बूंदें दस्तक सी देती
मन की तलहटी पर
भिगो जाती पलकों के गलियारे

ढूंढ लेते ये सभी
शब्दों का आशियाना
सीख लेते फिर एक
कविता में ढल जाना

जब कभी कविता को
टटोलती हूँ मन की
कई गांठें खुलती पाती हूँ

ऐ कविता तू
मनोभावों का आइना है
अभिव्यक्ति का जरिया है

हर दिल की आवाज
बनने के लिए तेरा
शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया
डॉ अर्चना गुप्ता 

मुक्तक (66 )

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(196 )

तुम मान करना पर कभी अभिमान मत करना

माता पिता का तुम कभी अपमान मत करना

उनसे मिली ये ज़िन्दगी उनकी अमानत है

उनसे अलग अपनी कभी पहचान मत करना

(197 )

गये जब भूल तुम हमको  चहकते हम भला कैसे

गिरे पतझड़ के’पत्तों से  लहकते हम भला कैसे

तुम्हीं से थी बहारें खुशबुओं से मन बहकता था

हुये अब फूल कागज़ के महकते हम भला कैसे

(198 )

आग विरहा की दिल को जलाने लगी

ये पवन यूँ मुझे अब सताने लगी

प्रीत गागर भी रीती पड़ी है सजन

याद हर पल मुझे फिर रुलाने लगी

डॉ अर्चना गुप्ता

 

मुक्तक (65 )

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(193 )

प्यार का जादू चलाना छोड़ दो

इस तरह से दिल जलाना छोड़ दो

है बहुत नाजुक हमारा दिल सनम

रूप की बिजली गिराना छोड़ दो

(194 )

दो ह्दय जो मिले प्रेम के हैं सुमन

बन कमल दल खिले प्रेम के हैं सुमन

उम्र भर प्यार की चाह दिल में रहे

भूल जाओ गिले प्रेम के हैं सुमन

(195 )

तुम्हारा प्यार भाता है लुभाता है

हमेशा राह सच्ची ये दिखाता है

नही है खून का पर लग रहा हमको

हमारा आपसे अनमोल नाता है

डॉ अर्चना गुप्ता

 

मुक्तक (64 )

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(190 )

चमन में फूल लाखों हैं मगर इक दिल लुभाता है

किया कब प्यार जाता है , हो’ अपने आप जाता है

नहीं सीधी डगर है प्यार की दिल जानता है पर

कहाँ परवाह करता वो ख़ुशी से जां लुटाता है

(191 )

होता क्या संसार अगर वो प्यार नहीं देता

जीत दिलाता सबको लेकिन हार नहीं देता

बस नफरत ,लालच के ही शूल चमन में होते

मानवता का यदि जग में व्यवहार नहीं देता

(192 )

पहने हुये वो तो नकाब आये

बस प्यार का देने जवाब आये

देखी जरा सी जो झलक लगा ये

जैसे कली पर गुल शबाब आये

डॉ अर्चना गुप्ता

 

मुक्तक (63 )

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(187 )

पीर की है नदी अश्क की धार है

डूबते पर नहीं प्रीत पतवार है

रीत बेदर्द है इस जहाँ की बड़ी

है जुदाई वहाँ पर जहाँ प्यार है

(188 )
छुपाना कठिन है बहुत प्यार मेरा

अधूरा रहेगा तुम्हारा बसेरा

अकेले नहीं जी सकोगे जहां में

मुझी से मिलेगा ख़ुशी का सवेरा

(189 )

जाने कब वो इनाम आएगा

दिल को उनका सलाम आएगा

रास्ता ढ़ूँढता है मंजिल को

देखिये कब मुकाम आएगा
डॉ अर्चना गुप्ता

मुक्तक (62 )

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(184 )

कमाया नाम भी हमने कमाई खूब दौलत भी

नहीं अब साथ में कोई खड़े तन्हा अकेले ही

कभी जब धन नहीं था सोचते थे धन ख़ुशी देगा

मगर जाना ये’ अब हमने वही खुशियाँ थी’ प्यारी सी

 (185 )

जख्म जो दिल पर लगें उनके निशां जाते नहीं

दूर इतनी वो गए कुछ भी खबर पाते नहीं

आज तन्हा ही अकेले हम खड़े है इस जगह

है अँधेरी रात अब साये नज़र आते नहीं

 (186 )

जब जब रिश्तों से अपना नाता टूट गया

अनमोल खजाना यादों का बस छूट गया

हम जीते तो हैं अधरों पर मुस्कान लिए

पर चैन हमारे दिल का कोई लूट गया

डॉ अर्चना गुप्ता

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मुक्तक (61 )

 

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(181 )

अभिनन्दन करते हैं आज तुम्हारा

है साथ तुम्हारे आशीष हमारा
अपनी जान बसी है जिसमें हर पल

सौंप दिया तुमको वो अपना प्यारा
(182 )

किताबों में जहां कब ढ़ूँढता है वो

जहाँ गूगल वहीँ पर डूबता है वो

धरोहर ज्ञान की इन में छिपी रहती

किताबों से भला क्यों ऊबता है वो

(183 )

ज़िन्दगी ये कभी भी ठहरती कहाँ

है कभी ये यहाँ तो कभी है वहाँ

मंजिलें भी सुनो रोज मिलती नहीं

चाहतों का लुटा कारवाँ है यहाँ

डॉ अर्चना गुप्ता

 

मुक्तक (60 )

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(178 )

पावन जल कम हो रहा, देख डरे इंसान
कारण क्या सोचे नहीं,  बना हुआ  अंजान
समय शेष है रोकिये , जल बर्बादी  आज
तरस न जायें देखिये , जल को फिर सन्तान

(179 )

पहचानने से जब हमें इंकार कर दिया
इस ज़िन्दगी को आप ने दुश्वार कर दिया
हम जानते मज़बूर होगे आप भी बहुत
जो आप ही खुद दर्द का विस्तार कर दिया

(180 )

छत पर खिले इस चाँद सा जलता रहा हूँ रात भर
मैं देख उसके  दाग को  ढलता रहा हूँ रात भर
कहता यही कोई बता दे   भूल मेरे प्यार की
मैं  आज उस की याद  में  गलता रहा हूँ  रात भर

डॉ अर्चना गुप्ता