आंटी

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किसी भी शब्दकोष का
सबसे बुरा शब्द आंटी।
जिस नार को बोलो लगे
जैसे मारे कोई संटी।

जब निकले कोई नार
कर सोलह श्रृंगार।
चले जुल्फें लहराकर
लचके कमर बल खाकर।

और कह दे उसे कोई आंटी।
हाल उसका ऐसा जैसे
सरेराह कालिख पोत दी।

बचता नहीं वहां कोई
चाहें राधा हो या नंदी।
सर पर रख पाँव
सबको भागने की जल्दी।

अक्सर होता है ये भी
खुद आंटी कह दे
किसी आंटी को आंटी।
तब होता वो कोहराम
कांपने लग जाती धरती।
देखा है ये मैने
अपनी आँखों से भी।

देती हूँ सलाह
आंटी शब्द ही बुरा
दे दो इसे तिलांजली।
गला घोट दो शब्द का
या देदो इसे फांसी।

प्रौढ़ा हो या जवान
बस बोलो प्यारी दीदी।
क्या जायेगा किसी का
गर हर नार को मिले ख़ुशी।

डॉ अर्चना गुप्ता (मुरादाबाद)

जाने क्यूँ

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नहीं जानता ये मन क्यूँ
तुम्हारा यूँ याद आना
हर रंजो गम
तुमसे बाँटना चाहना
थक जाऊ जब चलते चलते
चाहे  तुम्हारा ही हाथ थामना
जीवन की हर उलझन
चाहे  तुम्ही से सुलझाना
फिर षोडशी बन पकड़ हाथ
चाहे  कुछ पल बिताना
चाहूँ लाख इन एहसासों से
बहुत दूर भागना
पर मन पर भारी है दिल
नामुमकिन इसे समझाना
पर पूछता है ये मन बार बार
ऐसा क्यों क्यों क्यों।

-डॉ अर्चना गुप्ता

 

अपने कॉलेज की मधुर यादों का झरोंखा

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जीवन एक कैनवास मानकर ,
उकेरती  हर याद  इसपर।
थी बीते दिनों को फ़िर ज़ीने की चाहत,
सुन रही थी रोज़ मैं उनकी आहट।
बढ़ चले कदम खुदबखुद,
बस रुके कॉलेज के गेट पर आकर.
वही आम ,गुलमोहर आदि  के वृक्ष,
झूम रहे हवाओं से हिल मिल कर।
खड़ी हो गयी उनके नीचे ,
गिरेकुछ पुष्प यूँ  खिलकर।
छू लेने को आतुर मुझे ,
बिछ रहे हों जमीं पर।
झाँक रहा था दर दरवाजों से ,
यादों का झरोंखा।
मन दौड़ गया बीते वक्त मे ,
मैने भी नहीं उसको रोका।

वही क्लास वही लैब ,
वही थे गलियारे।
वही बैंच जिस पर थे ,
हम खूब बतियाते।
खो गई कहीं खुद ही
घने कोहरे की धुंध मे।
ढूंढने लगी खुद को ही
छात्राओँ के झुँड मे।
ढूंढा उनमे अपनी सखियों को भी।
याद में भिगो दिया अँखियों को  भी।
भर आया दिल याद कर पापा को
खोजती रही भीगी आँखों से उनको।
मन जो तड़पा था सालों से।
लग गया   गले उन,
भूली बिसरी यादों से।
हर जगह देखी छू छू कर।
कियामहसूस उन्हे अपनी रूह तक।
मिली पुराने दोस्तों से भी,
कुछ बड़ों कुछ छोटों से भी।
लौट आयी फ़िर अपने घर,
नई ऊर्जा अपने मे भर।

डॉ अर्चना गुप्ता  

 

 

बदलता वक़्त और माँ

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कल सिखाया था जिसको
उँगली पकड़ कर चलना ,
सिखाई थी दुनियादारी
और मुश्किलों से लड़ना ,
आज वही बेटा
समझाता है माँ  को ,
जब मेरे मिलनेवाले आएं
तो अन्दर ही रहना माँ।
बंद कमरे में टी वी का रिमोट
थमा देता है माँ को।

थपक २ कर सुलाया कभी
जागकर रात भर
पंखा झलती रही ,
आज जब उठ जाती है
रात में घबरा कर,
बत्ती जला कुछ कहती है
बुदबुदाकर ,
बेटा समझाता है माँ को ,
बहुत काम है मुझे
नाहक यूँ ही ना उठाया करो ,
नींद की गोली दे
सुला देता है माँ को।

कहानी सुनाना, लोरियाँ गाना ,
तोतली जुबां पर वारी २ जाना ,
कल की बात लगती माँ को।
आज वही माँ
तरसे दो बोल को ,
चाहे दो पल साथ बिताना।
बेटा समझाता है माँ को
बहुत बोलती हो ,
थोड़ा गम ख़ाना भी सीखो।
बहु को बेटी भी बनाना सीखो।

छलछला जाती हैं

माँ की अँखियाँ

कहने लगती है

बेटे को समझाकर
तेरी तो माँ थी ना जब
तू ही नहीं समझा मुझे यहॉँ ,
माँ बनू किसी और की
अब मुझमे ये हिम्मत  कहाँ।
बेटा अवाक् सा जड़ हो
देखता रह जाता है माँ  को।
डॉ अर्चना गुप्ता

 

तकरार धूप और ए सी की

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कड़ी ठण्ड मे छत परबैठी
धूप कहे ए सी से इतराए।
मेरे तो दीवाने सब
तू यहाँ पड़ा कुम्हलाये।
मेरे कतरे की भी क़ीमत
में दिखूं तो सब मुस्काये।
मुझको पाने को  आतुर सब
वस्त्र भी उन्हे ना भाये ।
मेरी संगत मे जीवन का
सब आनंद लेते जाएँ।
ना निकलू तो देखेँ रस्ता
सब टकटकी लगाएं।

ए सी बोला मत कर बहना
घमंड ये टूट ना जाये।
गर्मी के दिन आने दे
तू किसी से सही ना जाये।
तुझसे ही बचने की खातिर
ये मोटे पर्दे लटकाएं।
बाहर भी निकले गर कोई
पूरा ही ढक कर जाये।
आज तू हंस ले दिन सर्दी के
सब तुझको गले लगायेँ।
तपती दहकती गर्मी मे
कोई मेरे बिन रह ना पाएं।

समय समय की बात है
कब किसका वक़्त बदल जाये।
आज जो तेरे अपने हैं
कल यही मुझे अपनायेँ।

डॉ अर्चना गुप्ता

 

 

मुझे मनुष्य नहीं कुत्ता बनाना

 


सुबह की सैर भी  कमाल की होती है।  सब ओर खुशनुमा सा वातावरण।  सूरज की तलाश मे नया २ जन्म लेता सवेरा  उसकी किरणों को अपनी बाँहों मे लेने को आतुर सा। अंगड़ाई सी लेते अभी अभी सोकर उठें पेङ ,पौधे ,फूल पत्ते । चहचहाते पक्षी और कोयल की कुहू कुहू का  मधुर स्वर। कहीं मंदिर से आती घंटों की आवाज। मंद मंद चलती उन्मुक्त पवन। ये सब जैसे मन में नई स्फूर्ति और चेतना का प्रवाह कर देते  है। रोज मैं   नये नये अनुभव लेते हुए इन सब का आनन्द उठाती हूँ। बहुत लोगों से भी मिलना होता है। कोई दौड़ लगा रहा होता है , कोई कानोँ  मे ईयरफोनलगाये  हुए अपनी ही धुन मे चला जा रहा होता है। कुछ समूह में राजनीतिक वार्तालाप करते हुए होते है,  लेडीज घर गृहस्थी की बाते करते हुए,  कुछ औरोँ की बगिया से चुपके  से पुष्प तोड़ते   हुए ,तो लड़के सलमान खान बनने की धुन मे व्यायाम करते हुए।  मुझे बड़ा ही मज़ा आता है ये सब देखने मे।।मैं सैर करती रहती हूँ और मेरे साथ साथ चलते हैं अनगिनत विचार। कभी २ ऐसे विचार भी होतें हैं कि खुद ही मन ही मन मुस्कुरा उठतीं हुँ और कभी यही विचार कुछ सोचने के लिये भी मज़बूर कर देते हैं। एक ऐसी ही घटना और विचार से आपको वाकिफ कराना  चाहतीं हूँ ।

कुछ लोग अपने लाड़ प्यार से पाले  डॉगी को  भी साथ लेकर घूमते हैँ।  जब उन डॉगीज़  को देखती हूँ तो  लगता है ये भी कुछ हमारी तरह ही सोचते हैं और आपस में बातें करते हैं। जब अपने मालिक के साथ गर्व से चलता हुआ जंज़ीर से बंधा नवाबी डॉगी जब स्ट्रीट डॉग से मिलता  है तो उसकी आँखों मे मनुष्य की भांति ही गर्व सा दिखता है जैसे हुं, तुम कहाँ हम कहाँ। और स्ट्रीट डॉग भी उसे यूँ देखता है मानो कह रहा हो, क्या  किस्मत पाई है इसने, क्या ठाट है इसके, क़ाश हमारे भी  कर्म  बढ़िया होते तो हम भी  ऐसे हीं  आलिशान बंगलें मे पल रहे होते ।अक्सर स्ट्रीट डॉगी इकट्ठे होकर  किसी नवाबी डॉग  को देखकर उस पर सम्मिलित   स्वर मेँ भोंकना शुरु कर देते हैं, मानो अपना फ़्रस्टेशन निकाल रहे हों कि  बड़ा आया नवाब कहीं का। फिर तो उसे बचाने में मालिक के भी पसीने छूट जाते हैं।  कभी कभी  नवाबी डॉगी स्ट्रीट डॉग से खेलना भी चाहता है पर मालिक  की डांट  खाकर हट जाता है मानो समझ गया हो कि अपने स्तर के लोगों मे उठो बैठो।

कल एक ७-८ साल के बच्चे को कूड़े के ढ़ेर पर बैठें देखा। कुछ बीन रहा था।  शायद भूखा भी  था क्योकि   उसमेँ से कुछ बीन बीन कर खा भी  रहा था। तभी एक नवाबी डॉगी भी वहां आकर कुछ सूंघने लगा। मालिक ने कस कर डांटा ,नो बेबी ये गन्दा है चलो यहॉँ से और जेब से डॉगी स्पेशल बिस्कुट उसको खिला दिये।  डॉगी तो चला गया वहां से पर वो बच्चा सूनी सूनी आँखों से देखता रहा उसे जाते हुए ,मानो कह रहा हो काश में कुत्ता होता।।या सोच रहा हो  नहीं चाहिए ये मनुष्य योनि, मुझे तो कुत्ता ही बनाना ऐसा वाला।  फिर लग गया वो बीनकर कुछ खाने मे।किंकर्तव्यविमूढ़ सी मै घर वापस  आ गयी लेकिन सोचती रह गयी क्या है ये ज़िंदगी ?????????