भोर चुपके से आती
कानों में फुसफुसाती
मेरी नींद खुलती
मैं फिर सो जाती
अलार्म की घंटी फिर
कानों को थपथपाती
अंगड़ाई भी आकर
मेरे तन को सहलाती
विवश हो मैं उठ जाती
खोल दरवाजा बाहर आती
ताज़ी हवा बन झोंका
मेरे गले लग जाती
कोयल की कुहू कुहू
चिड़ियों की चहचहाहट
मन को गुदगुदा जाती
चुपके से झांकते
स्वर्णिम सूरज से
मैं अँखिया लड़ाती
सुबह की सैर का
भरपूर आनंद उठाती
लौट चाय की ललक
रसोई में ले जाती
कड़क चाय और
अख़बार संग
दोस्ती निभाती
सुकून के इन पलों को
मुट्ठी में संजोना चाहती
पर भागते वक़्त संग
भागती चली जाती
उलझ सी जाती बस
जीवन की भूल भुलैया में
भागती दौड़ती सी
एक अनोखी दुनिया में
यूँ ही शाम और
फिर रात हो जाती
होठों पे मुस्कान लिए
मैं सो जाती
उसी भोर के इंतज़ार में
उसी सुकून की तलाश में
डॉ अर्चना गुप्ता
bilkul sahi
सुबह की सैर का
भरपूर आनंद उठाती
लौट चाय की ललक
रसोई में ले जाती
कड़क चाय और
अख़बार संग
दोस्ती निभाती
सुकून के इन पलों को
मुट्ठी में संजोना चाहती
पर भागते वक़्त संग
भागती चली जाती
एकदम बढ़िया
thanx yogi ji
bahut sundar kavita. saral aur sehaj shabdo me anoothi bhent kaafi pasand ayi…
Bhor ka sukoon is really awesome. Bhagti daudti zindagi ki tayyari mein subah ka arpan , jaise aashirvad ho bhagvaan ka.