(148 )
दूर जाने का तुम्हें हमसे बहाना मिल गया
आँसुओं को आँख में फिर से ठिकाना मिल गया
तुम समझ पाये नहीं दिल ने बताया भी कहाँ
हम अकेले ही रहे तुमको जमाना मिल गया
(149 )
उलझनों में ही उलझते जा रहे हैं
हम घिरा खुद को ग़मों में पा रहे हैं
छिन गये हैं चैन के पल जिंदगी में
दूर जब से आप होते जा रहे है
(150 )
खुद आदमी को छल रहा है आदमी
दिन रात गम में गल रहा है आदमी
इंसानियत को भूल कर इस दौर में
अब चाल कैसी चल रहा है आदमी
.डॉ अर्चना गुप्ता