(175 )
मैं पत्थर हूँ तुम पारस हो
मेरे उर का तुम साहस हो
तुम जीवन का वो उजियारा
जो दीप बने जब मावस हो
(176 )
पटक कर पत्थरों से सर वहीं से लौट आती है
लहर मायूस होकर फिर उसी में तो समाती है
दिखाता जख्म अपने कब समुन्दर प्यार में देखो
बहा आंसूं बने खारा ,मगर वो खिलखिलाती है
(177 )
तरन्नुम को मिले जब साज़ तो कुछ खास होता है
मचलते हैं बड़े जज्बात जब तू पास होता है
बिताये पल की वो यादें समेटी हैं कहीं दिल में
लगे है प्यार का शायद यही इतिहास होता है
डॉ अर्चना गुप्ता