१३।
चीर कर सीना नदी का रोज चलती नाव है
वार सह पतवार के फिर आप सहती घाव है
जानती है फर्ज अपना,काम अपना जानती
पार करती है सभी को ,तारना ही भाव है
१४।
जताना कर्म ही काफी नहीं है
सिखाना धर्म ही काफी नहीं है
अलख इन्सानियत की तुम जगाओ
ख़ुशी का मर्म ही काफी नहीं है
१५।
नफरत की लपटों में तुम जलते क्यों हो
गन्दी गलिओं में हर पल पलते क्यों हो
कब माने तुम अपनों का कहना बोलो
पछता कर हाथों को अब मलते क्यों हो
डॉ अर्चना गुप्ता