विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
एक रात मैं थी,
नींद के दामन में।
मदहोश सी सोई थी,
सपनों के आँगन में।
तभी सुनी एक करुण पुकार….
कर रही थी रो -रो कर गुहार ….
बचा लो मुझे ,करो उपकार।
पूछा कौन …बोली धरती माँ तुम्हारी ,
जन्मदाती तो नहीं ,पालनहार तुम्हारी
दिया है मैंने तुम्हें बहुत कुछ,
रखती भी सबको सदा ही खुश।
मुझे भी सबका प्यार चाहिए।
थोड़ा ध्यान और देखभाल चाहिए।
हरियाली की नज़ाकत ,पहाड़ों का जादू ,
नदियों की कल कल,सब पर तुम्हारा काबू।
चीरते हैं मेरे सीने को तुम्हारे वाहन ,
बढ़ा देते हैं मेरे,तन मन की तपन।
काटकर मेरे वृक्षों को हर बार ,
करते हो सीना जख्मी बार बार।
मशीनों ,कारखानों से घुटती मेरी सांसें ,
जल आग की भट्टी में,
निकलती मेरी चीखें।
पिघल कर ये पर्वत जो मेरा श्रृंगार ,
मेरी ही आँखों से बहते जार जार।
बाढ़ लाते तबाही मचाते ,
बना जाते मुझे बदसूरत।
नभ में छेद करते हैं ,
तुम्हारे ए सी ,रेफ्रीजिरेटर।
नाराज़ हो वो उगलता भयंकर किरणें ,
बारिश के अकाल से ,
मेरा तन मन लगा झुलसने।
देख खामोश मुझे,
अनदेखी करो ना मेरी व्यथा।
ला खुद में थोड़ा बदलाव ,
पर्यावरण को लो बचा।
जाऊँगी रोज मैं जन जन के पास …..
करुँगी सबसे बस यही गुहार।
जलती मेरी देह को …..
थोड़ी शीतलता दे दो ,
तुम सब मेरी बस….
ये करुण पुकार सुन लो।
सुनकर सब मैं हो गयी जैसे जड़ ,
आँखों से आंसूं बह रहे थे उस पल।
घबरा कर आँखे खोली जब,
जाना सपना था ये सब।
संकल्प लेने लगी मन ही मन ,
धरती माँ को बचाने का ,
करुँगी पूरा यत्न।
डॉ अर्चना गुप्ता
beautiful,,,,,,
thanx hema ji
Deep…soulful…meaningful…and a great tribute to the occasion!
Please read mine here:
http://amitaag.blogspot.in/2012/11/1.html
and
http://amitaag.blogspot.in/2012/11/2.html
thanx amit ji
Aapki kavita main gazab ki gahrai hai, jisne Mann ko chhu liya
thanx mamta