माँ

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मुझे माँ इतिहास की
पुस्तक सी लगती है
उसके चेहरे की हर झुर्री
एक एक पन्ना सा लगती है
कितनी ही बार पढ़ लू उसे
मेरी लालसा ही नहीं भरती  है

आज फिर उलझ गयी उन्ही पन्नो में
बचपन से अब तक के पलों में
पढ़ने लगी फिर माँ को
उन्ही झुर्रियों वाली लकीरों में

दिखाई देने लगी मुझेअपनी पुरानी माँ
पुराने बड़े घर मेंहिरनी सी कूदती माँ
कभी खाना बनातीकभी कपड़े धोती माँ
घर को घर बनतीहर दम व्यस्त माँ
कभी डांटती कभीलाड लड़ाती माँ

सजती संवरतीचूड़ी खनखनाती माँ
ना पढ़ने पर  डांट लगाती
अच्छे नम्बरों पर लड्डू बांटती माँ
हम कुछ बन जाएँये सपना बुनती माँ
घर की खुशियों के लिएअपनी
इच्छाओं की तिलांजलि देती माँ

पापा के संगकदम से कदम
मिलाकर चलती माँ
लायक बच्चों के बीच
गर्वान्वित सी खड़ी  माँ
पापा से बिछड़ने पर
आंसू भरी सूनी सूनी
आँखों वाली माँ

वक़्त के साथ कमजोर होती
रुपहली लटों वाली माँ
तन कर चलने वाली अब
घुटने पकड़कर चलती माँ
अपनों के बीच भी कुछ
अकेली अकेली सी माँ
चुप  चुप रहती आँखें मूंदे
ईश्वरको याद करती माँ

पता नहीं कितने
पन्ने  हैंशेष अभी
खो ना दूँ मैइन्हे कही
दौड़ कर समा गयी
उनकी बाँहों में
छुपा कर  अपना चेहरा
उनके आँचल में ।

– डॉ अर्चना गुप्ता

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Dr. Archana Gupta

Dr. Archana Gupta loves to give words to her thoughts in the form of poems, stories and articles. She is passionate about learning new things and admire the beauty of the world.

23 thoughts on “माँ”

  1. अपने बच्चो पे सब कुछ न्योछावर कर देने वाली माँ।
    बहुत ही ह्रदयस्पर्शी कविता है। 🙂

    1. बहुत बहुत धन्यवाद ममता जी। आपकी प्रतिक्रियाओं से हमें प्रेरणा मिलती है।

  2. Bahut hi achchha chitran kiya hai aapne ‘Maa’ ke baare me…sach aapne dil ke taar jhankrit kar diye…apni maa se bahut door hote huye bhi aapne ek dum unko mere dil ke karreb laa diya…sach Dr. Archna aap ka bahut dhanyawaad.

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