सपने का सफ़र

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बंद आँखों की डिबिया से
एक सपने ने देखा झांक कर
फिर रोका अपने कदमों को
घना  अंधकार  देखकर
बाहर निकलने को
वो सपना आतुर था
असर ना उस पर मन के
समझाने  का था

वो तो बस मचल पड़ा
दहलीज़ आँखों की
पार कर डरते डरते
बाहर निकल पड़ा
जुबां नहीं थी  उसकी
पर अरमान तो थे
खुला आसमान ऊपर
हौंसले बुलंदी पर  थे

राह में मुश्किलें भी कुछ
कम नही आई उस पर
कभी अपनों ने कभी गैरों ने
खूब सितम किये उस पर
राह में उसके कई जगह
पैरों में हुई कुछ जलन
वो थी कुछ सपनों के
आत्मदाह की ही अगन

पर हुआ ना वो विचलित
रहा अपने पथ पर अढिग
कुछ नए सृजन की आद्रता से
कुछ कृत संकल्प की ऊष्मा से
सपने के बीज बीजित हुए
सपना पूरा करने को
बादल भी जैसे बरस गए।

-डॉ अर्चना गुप्ता

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Dr. Archana Gupta

Dr. Archana Gupta loves to give words to her thoughts in the form of poems, stories and articles. She is passionate about learning new things and admire the beauty of the world.

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