पल के साथ चलते हैं ,
पल गुजरते जाते हैं ,
खुद को पाने की बस ,
कोशिश करते रह जाते हैं।
वक़्त के उस दौर में शायद
खुद को ही गौढ़ पाते हैं।
कर्तव्यों की बेदी में
खुद ही होम हो जाते हैं।
पर पा भी जाते हैं बहुत कुछ
जिन्हे खोना भी
गंवारा नहीं कर पाते हैं।
खुद से ज्यादा बन अहं वो
हमारी अपनी ख़ुशी बन जाते हैं।
वक़्त गुजरता जाता है…
पर कहीं ना कहीं हम,
वहीँ ठहरे रह जाते हैं।
भटकते रहते हैं
एक भूलभुलैया मे,
कभी खुद में
कभी अपनों की दुनिया में।
फिसलती जाती है ज़िन्दगी
मुठ्ठी में रेत की तरह ,
छोड़ कर कसक दिल में
मन करे खुद से जिरह।
लगता है कुछ किया ही नहीं ,
खुद को तो अभी पाया ही नहीं।
तब हम व्यापारी बन जाते हैं
क्या खोया क्या नही पाया
बस ये हिसाब लगाते हैं।
नहीं…,इस सोच को बदलना होगा।
बीते कल को
आज सच करने होगा।
वक़्त नही अब
ये अफ़सोस करने का ,
वक़्त है अपने
सपनों को उड़ान देने का।
अब जियो बस खुद के लिए ,
अपने शौक अपने सपनों के लिए।
जो कर्म कमाए थे अब तक ,
खुद अपने को कहीं खोकर ,
सवांरेंगे वही हमको ,
अपनी ही रोशनी देकर।
खोया कुछ तो बहुत पाया भी है।
ज़िंदगी ने बहुत सराहा भी हैं।
मत हो निराश
सांसे तो अभी बहुत बाकी है,
कहानी खत्म कहाँ
अभी तो बहुत बाकी है।
डॉ अर्चना गुप्ता