मुक्तक (6 )

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(16)

बसने इन नैनों में आ गया कोई

बनके दिल की धड़कन छा गया कोई

मैं क्या जानूँ ये सब कुछ हुआ कैसे

चुपके से इस मन को भा गया कोई

(17)

चाहा है बस हमने तुम को

भँवरा तो ना समझो हम को

हम तो हैं बस प्रेम पुजारीँ

सहते रहते हैं हर गम को
(18)

यादें तुम्हारी ,जिन्दगी मेरे लिए

हैं जान से भी कीमती मेरे लिए

मैंने रखा उनको हिफाजत से सदा

वो हैं निशानी प्यार की मेरे लिए

डॉ अर्चना गुप्ता

प्रीत की डोर(गीतिका 1 )


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ये अश्क होते मोती 
यदि आँख तेरी रोती

लेता पिरो मै उनको
जो प्रीत डोर होती

मै बांसुरी सा बजता
तू होश अपने खोती 

दिल हार के मैं हँसता
तू जीत कर भी रोती

मैं नींद तेरी बनता
तू ख्वाब बस संजोती

मै चांदनी ले आता
बन रातरानी सोती

डॉ अर्चना गुप्ता


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कुण्डलिनी छंद (२ )

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(4)
ऐसा कभी न सोचिये , सभी एक से होत

कुछ में तुम गुणवान हो ,कुछ में दूजे होत

कुछ में दूजे होत,खुदी को तुम पहचानो

क्षमता के अनुसार ,शक्ति की महिमा जान

 

(5)
घूमे पहिया वक्त का, असर उमर पे होय

पर टीका राखी वही , असर न उस पर कोय

असर न उस पर कोय, रहे वो साथ पुराना

धागा बाँधे बहन , प्यार का मिले खजाना

(6)
आज़ादी पाए हमें , बीते कितने साल

भूले सारे मूल्य हम ,मानवता बे हाल

मानवता बे हाल, रो रही भारत माता

उठो देश के वीर ,बनो तुम भाग्य विधाता

डॉ अर्चना गुप्ता

मुक्तक (५)

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१३।
चीर कर सीना नदी का रोज चलती नाव है

वार सह पतवार के फिर आप सहती घाव है

जानती है फर्ज अपना,काम अपना जानती

पार करती है सभी को ,तारना ही भाव है

 

१४।
जताना कर्म ही काफी नहीं है

सिखाना धर्म ही काफी नहीं है

अलख इन्सानियत की तुम जगाओ

ख़ुशी का मर्म ही काफी नहीं है

 

१५।
नफरत की लपटों  में  तुम जलते क्यों हो

गन्दी गलिओं में हर पल पलते क्यों हो

कब माने तुम अपनों का कहना बोलो

पछता कर हाथों को अब मलते क्यों हो

डॉ अर्चना गुप्ता

 

मुक्तक (४ )

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१०।
समझ कर नासमझ तुझ को

किया गुमराह ही खुद को

असल था रूप वो तेरा

समझ कब आ सका मुझ को

डॉ अर्चना गुप्ता

११।
जाकर के परदेश हमें यूँ भूल न जाना

जीवन के रिश्तों को प्रियवर आप निभाना

करना अच्छे कर्म सदा अपने जीवन में

जग में प्यारे भारत का सम्मान बढ़ाना

१२।

दर्द गीत हो गये

शब्द मीत हो गये

नैन अश्रु से भरे

हार -जीत हो गये

 

डॉ अर्चना गुप्ता

मुक्तक (३)

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७।
पेड़ों पर झूले डोल गये
बातों का बस्ता खोल गये
पीहर  की बीती यादों को
आँखों के आँसूं बोल  गये  

८।

मौसम ने भी श्रृंगार किया
जीवन भी खुशगंवार किया
रिमझिम २ मेघा बरसे
हर प्रेमी मन गुंजार किया

९।

ना किसी का दास  होता
ना अकेला वास होता
मन ख़ुशी से झूम जाता
आज गर तू पास होता

डॉ अर्चना गुप्ता


मुक्तक (२)

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४.
शब्द से सौ – वार डरते घाव भी हैं

शब्द बन हथियार करते घाव भी हैं

टूट जाओ गर किसी की बात से तुम

शब्द बनकर प्यार भरते घाव भी हैं

५।

कोई दंश सर्प का झेल रहा

कोई सँग सुखों के खेल रहा

है कर्मों का सब लिखा प्रिये

कोई पास तो कोई फेल रहा

६।

जो पल गुजर गए मिलते फिर कहाँ

जो फूल गिर गए खिलते फिर कहाँ

ये सत्य है कहानी दिल से सुनो

जो दीप बुझ गये जलते फिर कहाँ

डॉ अर्चना गुप्ता

 

पुनर्जन्म माँ का

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बेटे को देकर जन्म
बढ़ जाता है माँ का ओहदा
सबकी दृष्टि में
पर जन्म देकर बेटी को
भीग जाती है माँ खुद
सृजन की संतुष्टि में

बेटी की हर अदा हर मुस्कान
भर देती माँ को
भावनात्मक तृप्ति में
क्युंकि बेटी में देख अपनी छवि
भीग जाती यादों की वृष्टि में

उसके हर पल में घूम  लेती
अपने ही बचपन में
जो रह गए थे कुछ मलाल
जुटी रहती उनसे
बेटी को बचाने में
जो रह गए थे अधूरे ख्वाब
उन्हें पूरा करने में

चाहे दुःख हो चाहे सुख
रहती बेचैन
बेटी से साझा करने में
सहेली सी पा लेती है माँ
वयस्क होती बेटी में

उम्र के बढ़ते दौर में
अपना दिल टटोलती है
बेटी  के दिल में

सच है बेटी जनकर ही

माँ जी पाती है
दो जन्म
एक ही जन्म में …

डॉ अर्चना गुप्ता

 

कुण्डलिनी छंद (१ ).

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अपनों से तू प्रीत कर ,अपनों को मत खोय

दुख में तेरे सँग चले ,अपना ही प्रिय कोय

अपना ही प्रिय कोय ,अरे ओ भोले भाले

रिश्ते हैं अनमोल ,प्रेम से इन्हें निभाले

२ 

बिन बोले सब बोल दें, दिल की पीड़ा नैन

टूटे दिल को कब मिला, अन्त समय तक चैन

अन्त समय तक चैन ,समझिये इनकी बानी

झर झर झरते नैन, प्रेम की कहें कहानी

3

देख नजर से गैर की ,अपने को मत तोल

मंजिल तेरी  तय करें ,असल ख़ुशी के बोल

असल ख़ुशी के बोल ,ख़ुशी  दुनिया की पाये

हिम्मत से ले काम ,सफल जीवन हो जाये

डॉ अर्चना गुप्ता

 

 

 

भोर एक सुकून

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भोर चुपके से आती
कानों में फुसफुसाती
मेरी नींद खुलती
मैं  फिर सो जाती
अलार्म की घंटी फिर
कानों को थपथपाती
अंगड़ाई भी आकर
मेरे तन को सहलाती

विवश हो मैं उठ जाती
खोल दरवाजा बाहर आती
ताज़ी हवा बन झोंका
मेरे गले लग जाती
कोयल की कुहू कुहू
चिड़ियों की चहचहाहट
मन को गुदगुदा जाती
चुपके से झांकते
स्वर्णिम सूरज से
मैं अँखिया लड़ाती

सुबह की सैर का
भरपूर आनंद उठाती
लौट चाय की ललक
रसोई में ले जाती
कड़क चाय और
अख़बार संग
दोस्ती निभाती
सुकून के इन पलों को
मुट्ठी में संजोना चाहती
पर भागते वक़्त संग
भागती चली जाती

उलझ सी जाती बस
जीवन की भूल भुलैया में
भागती  दौड़ती सी
एक अनोखी दुनिया में
यूँ ही शाम और
फिर रात हो जाती
होठों पे मुस्कान लिए
मैं  सो जाती
उसी भोर के इंतज़ार में
उसी सुकून की तलाश में

डॉ अर्चना गुप्ता