गीत लिखूं एक ऐसा (गीत1 )

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मैं गीत लिखूँ इक ऐसा
हो सबके मन  का जैसा

ना राजा हो ना रानी
हो सब लोगो की बानी
सबकी ही गाथा जैसा
मैं गीत लिखूँ इक ऐसा

हर कोई नाचे गाये  
खुशिओं  में झूमा जाये
मुस्काये कलिका जैसा
मैं गीत लिखूँ इक ऐसा

हर ले जो सबके गम को
पी जाये जग के तम को
दीपों की माला जैसा
मैं गीत लिखूँ इक ऐसा      

 जो साजन घर ले जाये
सखिओं की याद दिलाये
बाबुल के अँगना जैसा
मैं गीत लिखूँ इक ऐसा

डॉ अर्चना गुप्ता

 

 

 

 

 

 


 

 

 

 

 

 

 

 

नहीं शिकवा जिंदगी से कोई

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देख भीगी पलकें ना सोच लेना

गम है हमें कोई

खुशियां भी भिगो जाती हैं

इन अँखियों को यूँ ही

 

देख यूँ अकेले ना सोच लेना

सताती है तन्हाई

ख्वाबों में बसे रहते हो

हरदम तुम यूँ ही

 

उठे हाथ देख ना सोच लेना

तमन्ना और कोई

दुआ में उठ जाते हैं

शुक्रिया करने यूँ ही

 

तुम तुम ना रहे ना सोच लेना

शिकवा हमें कोई

हम भी ना हम रह पाये

वक़्त के साथ यूं ही

 

ना डर मौत से तो  न सोच लेना

डर ज़िंदगी का कोई

जो मिलना था वो मिल गया

बाकी गवां दिया यूँ ही

 

डॉ अर्चना गुप्ता

 

निःशब्द मिलन

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तुम्हारा मौन

उसमें छिपे शब्द

मेरी ख़ामोशी

बस उनका अक्स

 

अनेक कही अनकही बातें….

पहचान लेते हैं हम तुम

मेरी ख़ामोशी को

तुम पढ़ा करते हो

तुम्हारे मौन को

मैं लिखा करती हूँ

 

तुम्हारा मौन हर बार

मेरी ख़ामोशी के कान में

फुसफुसा कर

कह जाता है सब कुछ

हाँ शायद सब कुछ…

जो तुम मुझे और

मैं तुमसे कहना चाहती हूँ

 

उकेर कर कागज़ पर

हो जाती हु तृप्त

ख्वाबों के महल में

लगा लेती हूँ गश्त

 

मौन और ख़ामोशी का

ये मिलन निःशब्द

 

डॉ अर्चना गुप्ता

वक़्त अभी बाकी है

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पल के साथ चलते हैं ,

पल गुजरते जाते हैं ,

खुद को पाने की बस ,

कोशिश करते रह जाते हैं।

 

वक़्त के उस दौर में शायद

खुद को ही गौढ़ पाते हैं।

कर्तव्यों की बेदी में

खुद ही होम हो जाते हैं।

पर पा भी जाते हैं बहुत कुछ

जिन्हे खोना भी

गंवारा नहीं कर पाते हैं।

खुद से ज्यादा बन अहं वो

हमारी अपनी ख़ुशी बन जाते हैं।

वक़्त गुजरता जाता है…

पर कहीं ना कहीं हम,

वहीँ ठहरे रह जाते हैं।

 

भटकते रहते हैं

एक भूलभुलैया मे,

कभी खुद में

कभी अपनों की दुनिया में।

फिसलती जाती है ज़िन्दगी

मुठ्ठी में रेत की तरह ,

छोड़ कर कसक दिल में

मन करे खुद से जिरह।

लगता है कुछ किया ही नहीं ,

खुद को तो अभी पाया ही नहीं।

तब हम व्यापारी बन जाते हैं

क्या खोया क्या नही पाया

बस ये हिसाब लगाते हैं।

 

नहीं…,इस सोच को बदलना होगा।

बीते कल को

आज सच करने होगा।

वक़्त नही अब

ये अफ़सोस करने का ,

वक़्त है अपने

सपनों को उड़ान देने का।

अब जियो बस खुद के लिए ,

अपने शौक अपने सपनों के लिए।

 

जो कर्म कमाए थे अब तक ,

खुद अपने को कहीं खोकर ,

सवांरेंगे वही हमको ,

अपनी ही रोशनी देकर।

खोया कुछ तो बहुत पाया भी है।

ज़िंदगी ने बहुत सराहा भी हैं।

मत हो निराश

सांसे तो अभी बहुत बाकी है,

कहानी खत्म कहाँ

अभी तो बहुत बाकी है।

 

डॉ अर्चना गुप्ता

बोरिंग न्यूज़ खल्लास

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बोरिंग न्यूज़ खल्लास …

बड़े बड़े सितारों का

सुनती ये आगाज़।

पर न्यूज़ बोरिंग कब होती हैं।

कभी ख़ुशी कभी गम में

लिपटी होती हैं।

आलम तो ये ,रूह रोती ज्यादा

हंसती कम है।

कभी महंगाई की मार ,

नारी पर अत्याचार ,

दुर्घटनाओं की तो भरमार,

प्राकृतिक आपदाओं की धार ,

मानवता का हनन देख ,

आत्मा कर उठती चीत्कार।

इन सबको करो खल्लास।

पढ़ाओ जन जन को

मानवता का पाठ।

तभी सबको होगा उल्लास।

 

खुशियां भी

,लाती है ख़बरें

कभी खेलों की चमक ,

रुपहले पर्दें की चटक ,

कभी दुनिया की सैर ,

करातीं ख़बरें,

सबका ज्ञान बढ़ाती ख़बरें,

बोरिंग नही ये होती झक्कास।

 

हाँ बोरिंग

तो विज्ञापन होते हैं ,

कुछ तो बेसिरपैर होते हैं

होते कुछ ,दिखाते कुछ हैं ,

पर आमदनी का

जरिया होते हैं।

इनको नहीं कर सकते खल्लास।

तो और कौन सी न्यूज़ खल्लास।

 

डॉ अर्चना गुप्ता

एक शिकवा व्यास नदी से

 

 

 

 

 

 

 

ऐ नदी तू निरन्तर बहती ,
झेल दिन भर पाषाणों को
क्यूँ हुई इतनी पत्थर दिल सी।
देख इन मासूम चेहरों को ,
आत्मा तेरी तनिक ना हिली।

माना गलती थी मानव की ,
तो उन्ही को सजा दी होती।
क्या दोष था प्यारे बच्चों का …
क्या खेलने की सजा दी….
नादान होता है बचपन ,
यूँ ही कोई सजा दी होती।
पत्थरों से पटक पटक कर ,
जान तो ना ली होती।
ना जाता किसी आँख का नूर ,
कोई गोद ना सुनी होती।

क्या गलती थी
उन पालनहारों की।
बन छाया अपने लाल की ,
उनपर आंच ना आने दी।
जब थे वो नौनिहाल
तेरे आँचल में ,
तू इतनी बेबस बेजान क्यों थी।
आज हर दिल, हर मन है दुखी।
नम आँखों से देते श्रद्धांजली।

डॉ अर्चना गुप्ता

 

माँ…कैसे जियूं तेरे बिन

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हर माँ की एक ही चाहत ,

जीवन में बेटा आगे बढ़े बहुत ,

लगा देती तन मन उसके लिए ,

करती दुआएं लाख उसके लिए।

 

पर एक दिन मेरा मन भर आया ,

जब एक बेटे को माँ से ये कहता पाया।

बोला…माँ कुछ तेरे कुछ अपने सपने

पूरा करने मैं आगे… तो बढ़ जाऊंगा।

पर लौट कर शायद वापस ना आ पाऊँगा।

एक बार घुस इस दौड़ में

वापसी का रास्ता ना ढूंढ पाऊंगा।

 

पा तो जाऊंगा बहुत कुछ,

पर छूट भी जायेगा बहुत कुछ,

वो वक़्तकैसे  वापस पाऊंगा।

वापस आया भी गर बरसों बाद,

कैसे पाऊंगा आज वाली आप।

नहीं माँ .. वक़्त आगे निकल जायेगा ,

पछतावे में बस हाथ मलता रह जाऊंगा।

 

हो सकता है माँ ये भी ,

बदल जाऊं वक़्त के साथ मैं भी।

पैसे की चकाचौंध

डगमगा दे मेरे पाँव भी।

तब तो तेरी आँखों का

नूरही मिट जायेगा।

बूढ़ी होती इन आँखों में,

बस इंतज़ार ही रह जायेगा।

 

काँप उठती है माँ

मेरी रूह ये सोचकर,

मेरा तो आगे बढ़ना ही व्यर्थ जायेगा।

नहीं माँ…बढूंगा तो बहुत

आगे इस दुनिया में

पर उड़कर आसमां में भी

रखूँगा पाँव जमीं में ही।

माँ मैं तुमसे दूर नही रह पाऊंगा।

 

सुनती रही माँ ये सब

खामोश थे उसके लब

आँखें आंसुओं से लबालब।

आँखों में ले नमी ,

मैं ये सोचने लगी।

गर सोच हो जाये सभी की ऐसी ,

कोई बूढ़ी अंखिया रहे न प्यासी।

भर जाएँ दामन में सारी खुशियां

ना आये उनमे कभी उदासी।

 

चहक उठेगा घर घर का अंगना ,

वृद्धाआश्रम का तो अस्तित्व ही मिट जायेगा।

पल कर बुजुर्गों की छाँव में

हर बच्चा अच्छा संस्कार पायेगा।

वीभत्स होते से जा रहे समाज में ,

ऐसे ही अच्छा सुधार आएगा।

 

डॉ अर्चना गुप्ता

व्यथा धरती की

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
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एक रात मैं थी,
नींद के दामन  में।
मदहोश सी सोई  थी,
सपनों के  आँगन  में।
तभी सुनी एक करुण पुकार….
कर रही थी रो -रो कर गुहार ….
बचा लो मुझे ,करो उपकार।

पूछा कौन …बोली धरती माँ तुम्हारी ,
जन्मदाती तो नहीं ,पालनहार तुम्हारी
दिया है मैंने तुम्हें बहुत कुछ,
रखती  भी  सबको सदा ही खुश।
मुझे भी सबका प्यार चाहिए।
थोड़ा ध्यान और देखभाल चाहिए।

हरियाली की नज़ाकत ,पहाड़ों का जादू ,
नदियों की कल कल,सब पर तुम्हारा  काबू।
चीरते हैं मेरे सीने को तुम्हारे वाहन ,
बढ़ा देते हैं मेरे,तन मन की तपन।
काटकर मेरे वृक्षों को हर  बार ,
करते हो सीना जख्मी बार बार।
मशीनों ,कारखानों से घुटती मेरी सांसें ,
जल आग की भट्टी में,
निकलती मेरी चीखें।

पिघल कर ये पर्वत जो  मेरा श्रृंगार ,
मेरी ही आँखों से बहते जार जार।
बाढ़ लाते तबाही मचाते ,
बना जाते मुझे बदसूरत।
नभ में   छेद  करते हैं ,
तुम्हारे ए सी ,रेफ्रीजिरेटर।
नाराज़ हो वो उगलता भयंकर किरणें ,
बारिश के अकाल से ,
मेरा तन मन लगा झुलसने।

देख खामोश मुझे,
अनदेखी  करो ना मेरी व्यथा।
ला खुद में थोड़ा बदलाव ,
पर्यावरण को लो बचा।
जाऊँगी रोज मैं जन जन के पास …..
करुँगी सबसे बस यही गुहार।
जलती मेरी देह को …..
थोड़ी शीतलता दे दो ,
तुम सब मेरी बस….
ये करुण पुकार सुन लो।

सुनकर सब मैं हो गयी जैसे जड़ ,
आँखों से आंसूं बह रहे थे उस पल।
घबरा कर आँखे खोली जब,
जाना सपना था ये सब।
संकल्प लेने लगी मन ही मन ,
धरती माँ को बचाने का ,
करुँगी पूरा यत्न।

डॉ अर्चना गुप्ता

आंटी

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किसी भी शब्दकोष का
सबसे बुरा शब्द आंटी।
जिस नार को बोलो लगे
जैसे मारे कोई संटी।

जब निकले कोई नार
कर सोलह श्रृंगार।
चले जुल्फें लहराकर
लचके कमर बल खाकर।

और कह दे उसे कोई आंटी।
हाल उसका ऐसा जैसे
सरेराह कालिख पोत दी।

बचता नहीं वहां कोई
चाहें राधा हो या नंदी।
सर पर रख पाँव
सबको भागने की जल्दी।

अक्सर होता है ये भी
खुद आंटी कह दे
किसी आंटी को आंटी।
तब होता वो कोहराम
कांपने लग जाती धरती।
देखा है ये मैने
अपनी आँखों से भी।

देती हूँ सलाह
आंटी शब्द ही बुरा
दे दो इसे तिलांजली।
गला घोट दो शब्द का
या देदो इसे फांसी।

प्रौढ़ा हो या जवान
बस बोलो प्यारी दीदी।
क्या जायेगा किसी का
गर हर नार को मिले ख़ुशी।

डॉ अर्चना गुप्ता (मुरादाबाद)

जाने क्यूँ

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नहीं जानता ये मन क्यूँ
तुम्हारा यूँ याद आना
हर रंजो गम
तुमसे बाँटना चाहना
थक जाऊ जब चलते चलते
चाहे  तुम्हारा ही हाथ थामना
जीवन की हर उलझन
चाहे  तुम्ही से सुलझाना
फिर षोडशी बन पकड़ हाथ
चाहे  कुछ पल बिताना
चाहूँ लाख इन एहसासों से
बहुत दूर भागना
पर मन पर भारी है दिल
नामुमकिन इसे समझाना
पर पूछता है ये मन बार बार
ऐसा क्यों क्यों क्यों।

-डॉ अर्चना गुप्ता